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आप्तवाणी-३
स्वभाव तांबे में नहीं आता और तांबे का स्वभाव सोने में नहीं आता। दोनों साथ-साथ रहें, फिर भी अपने-अपने स्वभाव में रहते हैं।
घर-बार, पत्नी, बच्चों का त्याग किया, वह भी पुद्गल भाव है और विवाह किया वह भी पुदगल भाव है। पुदगल के भावों को खुद के मानता है, उसीसे संसार चलता है। क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि, 'मेरे अलावा अन्य कोई भाव कर ही नहीं रहा, अन्य सब जड़ हैं, लेकिन उसे ख़बर नहीं है कि इस जड़ के भी भाव होते हैं और वे भाव भी जड़ हैं। यह चेतनभाव है और यह जड़भाव है' इतना समझ में आया कि छूट गया।
पुद्गल के भाव कैसे हैं? आने के बाद चले जाते हैं। और जो नहीं जाता, वह आत्मभाव है। पुद्गल का भाव अर्थात् भरा हुआ भाव है, वह गलन हो जाएगा। यह बहुत सूक्ष्म बात है और अंतिम दशा की बात है। निरपेक्ष बात है।
हमने आप महात्माओं को जो आत्मा दिया है, वह निर्लेप ही दिया है। मन के विचार आते हैं, जो-जो भाव आते हैं, वे सभी लेपायमान भाव हैं। वे 'हमें' भी लेपने जाते हैं। निर्लेप को भी लेपने जाएँ, वैसे हैं। लेकिन ये तेरे भाव नहीं हैं। जो पूरण हो चुके भाव हैं उनका गलन हो रहा है, उसमें तुझे क्या है फिर? चार वर्ष पहले का गुनाह हो और वह कोर्ट में दब गया हो, तो आज चिट्ठी आएगी या नहीं आएगी? पहले के पूरण का आज गलन हो रहा है, उसमें तू किसलिए डरता रहता है? इन मनवचन-काया के तमाम लेपायमान भावों से 'मैं' मुक्त ही हैं। मन-वचनकाया की तमाम संगी क्रियाओं से 'मैं' असंग ही हूँ। ये संगी क्रियाएँ, ये सभी स्थूल क्रियाएँ हैं, और आत्मा तो बिल्कुल सूक्ष्म है। दोनों को कभी इकट्ठा करना हो, फिर भी होंगे नहीं। यह तो भ्रांति से जगत् उत्पन्न हुआ है। आत्मा एक क्षण के लिए भी रागी-द्वेषी हुआ नहीं, यह तो भ्रांति से ऐसा लगता है। वह कभी भी अनात्मा नहीं हुआ है और अनात्मा, आत्मा कभी हुआ ही नहीं। सिर्फ रोंग बिलीफ़ ही बैठ गई है कि, 'यह मैं कर रहा हूँ।'
__ आत्मा असंग ही है। खाते समय जुदा है, पीते समय जुदा है। आत्मा जुदा है तभी वह जान सकेगा, नहीं तो वह जान ही नहीं सकेगा।