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आप्तवाणी-३
है। ‘मैं फँस गया' ऐसा चिंतवन हुआ कि वह फँस जाता है । 'चोरी करनी चाहिए' यदि ऐसा चिंतवन करने लगा तो चोर बन ही जाता I
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प्रश्नकर्ता : आत्मा तो शुद्ध ही है, तो फिर आत्मा में यह चीज़ कैसे आएगी?
दादाश्री : आत्मा तो शुद्ध ही रहता है! लेकिन यह अहंकार जो भी करता है, जैसा चिंतवन करता है वैसा हो जाता है । उसे व्यवहार आत्मा, मिकेनिकल आत्मा या प्रतिष्ठित आत्मा कहते हैं । 'मैं दिवालिया हूँ', ऐसा चिंतवन करते ही दिवालिया हो जाता है। 'मैं बीमार हूँ, ऐसा चिंतवन करते ही बीमार हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा जैसा चिंतवन करे, वैसा हो जाता है, तो हम चिंतवन करें कि मुझे हज़ार रुपये मिल जाएँ या और कोई वस्तु मिल जाए तो वह क्यों इफेक्ट में नहीं आता?
दादाश्री : उसी क्षण इफेक्ट में आ जाता है, लेकिन ज्ञानी की भाषा में समझो तो समझ में आएगा । हज़ार रुपये का चिंतवन किया तो तुरन्त ही वह याचक बन गया । पैसे मिलेंगे-करेंगे नहीं, लेकिन खुद याचक बन जाता है।‘खुद बहुत दु:खी है', ऐसा चिंतवन करते ही खुद का अनंत सुख आवृत हो जाता है और दु:खिया बन जाता है । 'मैं सुखमय हूँ', ऐसा चिंतवन करे तो सुखमय बन जाता है । सास से किच-किच करे तो किच-किचवाली बन जाती है। फिर तो चाय पीने के लिए भी किच-किच करती है, क्योंकि किच-किच का चिंतवन किया है !
आत्मा खुद अनंत शक्तिवाला है ! सभी प्रकार की शक्तियाँ अंदर से निकलें, ऐसी है । जितनी शक्तियाँ निकालनी आएँ, उतनी आपकी । लेकिन एक बार उस अनंत शक्ति का भान हो जाना चाहिए। यह तो उल्टा चिंतवन करता है, इसलिए उलझन खड़ी होती है। एक बार शुद्धात्मा का चिंतवन प्राप्त हो जाए तो उसके बाद वह अपने आप ही रहेगा, खुद को कुछ भी करना नहीं पड़ेगा। आप जहाँ जाओ, वहाँ पर आपको शुद्धात्मा का चिंतवन होता ही रहता है न?
प्रश्नकर्ता : हाँ।