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आप्तवाणी-३
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इस जगत् को सुधारने का रास्ता ही प्रेम है। जगत् जिसे प्रेम कहता है वह प्रेम नहीं है, वह तो आसक्ति है। बेटी से प्रेम करते हो, लेकिन वह प्याला फोड़ दे, तब प्रेम रहता है? तब तो चिढ़ जाते हैं। मतलब, वह आसक्ति है।
बेटे-बेटियाँ हैं, आपको उनके संरक्षक की तरह, ट्रस्टी की तरह रहना है। उनकी शादी करने की चिंता नहीं करनी होती है। घर में जो हो जाए उसे 'करेक्ट' कहना, 'इन्करेक्ट' कहोगे तो कोई फायदा नहीं होगा। गलत देखनेवाले को संताप होगा। इकलौता बेटा मर गया तो करेक्ट है, ऐसा किसी से नहीं कह सकते। वहाँ तो ऐसा ही कहना पड़ेगा कि, बहुत गलत हो गया। दिखावा करना पड़ेगा। ड्रामेटिक करना पड़ेगा। बाकी अंदर तो करेक्ट ही है, ऐसा करके चलना। प्याला जब तक हाथ में है तब तक प्याला है ! फिर गिर पड़े और फूट जाए तो करेक्ट है ऐसा कहना चाहिए। बेटी से कहना कि सँभालकर धीरे से लेना लेकिन अंदर करेक्ट है, ऐसे कहना। यदि क्रोध भरी वाणी नहीं निकले तब फिर सामनेवाले को नहीं लगेगी। मुँह पर बोल देना, केवल उसीको क्रोध नहीं कहते, अंदर-अंदर कुढ़ना भी क्रोध कहलाता है। सहन करना, वह तो डबल क्रोध है। सहन करना यानी दबाते रहना, वह तो जब एक दिन स्प्रिंग की तरह उछलेगा तब पता चलेगा। सहन क्यों करना है? इसका तो ज्ञान से हल ला देना है। चूहे ने मूछे काटी वह 'देखना' है और 'जानना' है, उसमें रोना किसलिए? यह जगत् देखने-जानने के लिए
घर, एक बगीचा एक भाई मुझे कहते हैं कि, 'दादा, घर में मेरी पत्नी ऐसा करती है, वैसा करती है।' तब मैंने कहा कि, 'पत्नी से पूछो कि वह क्या कहती है?' वह कहती है कि मेरा पति ऐसा बेकार है। बिना अक्ल का है। अब इसमें आप सिर्फ खुद के लिए न्याय क्यों खोजते हो? तब वे भाई कहते हैं कि मेरा तो घर बिगड़ गया है। बच्चे बिगड़ गए हैं। बीवी बिगड़ गई है। मैंने कहा, 'कुछ भी नहीं बिगड़ा। आपको उसका ध्यान रखना नहीं आता। आपको अपने घर का ध्यान रखना आना चाहिए।' आपका