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आप्तवाणी-३
___२११ खड़कने में, जोखिमदारी खुद की ही प्रश्नकर्ता : मतभेद होने का कारण क्या है?
दादाश्री : भयंकर अज्ञानता! अरे संसार में जीना नहीं आता, बेटे का बाप होना नहीं आता, पत्नी का पति होना नहीं आता। जीवन जीने की कला ही आती नहीं। यह तो सुख होने पर भी सुख भोग नहीं सकते हैं।
प्रश्नकर्ता : परंतु बरतन तो घर में खड़केंगे न?
दादाश्री : बरतन रोज़-रोज़ खडकाना किसे रास आएगा? यह तो समझता नहीं, इसीलिए रास आता है। जो जागृत हो, उसे तो एक मतभेद पड़े तो सारी रात नींद ही नहीं आए! इन बरतनों को (मनुष्यों को) स्पंदन हैं, इसलिए रात को सोते-सोते भी स्पंदन करता रहता है, 'ये तो ऐसे हैं, टेढ़े हैं, उल्टे हैं, नालायक हैं, निकाल देने जैसे हैं!' और उन बरतनों को कोई स्पंदन है? लोग समझे बिना हाँ में हाँ मिलाते हैं कि 'दो बरतन साथ में होंगे तो खड़केंगे!' घनचक्कर, लोग क्या बरतन हैं? तो क्या हमें खड़कना चाहिए? इन 'दादा' को किसी ने कभी भी खड़कते हुए नहीं देखा होगा! सपना भी नहीं आया होगा ऐसा!! खड़कना किसलिए? यह खड़कना तो अपनी खुद की जोखिमदारी पर है। खड़कना क्या किसी और की जोखिमदारी पर है? चाय जल्दी नहीं आई हो, और आप टेबल को तीन बार ठोकें तो जोखिमदारी किसकी? इसके बदले तो आप बुद्ध बनकर बैठे रहो। चाय मिली तो ठीक, नहीं तो देखूगा ऑफिस में। क्या बुरा है? चाय का भी कोई काल तो होगा न? यह जगत् नियम से बाहर तो नहीं होगा न? इसलिए हमने कहा है कि 'व्यवस्थित'। उसका टाइम होगा तब चाय मिलेगी, आपको ठोकना नहीं पड़ेगा। आप स्पंदन खड़े नहीं करोगे तो वह आकर रहेगी, और स्पंदन खड़े करोगे तब भी आएगी। परंतु स्पंदन के, वापस वाइफ का खाते में हिसाब जमा होगा कि आप उस दिन टेबल ठोक रहे थे न!
प्रकृति पहचानकर सावधानी रखना पुरुष घटनाओं को भूल जाते हैं और स्त्रियों की नोंध सारी जिंदगी रहती है, पुरुष भोले होते हैं, बड़े मन के होते हैं, भद्रिक होते हैं, वे भूल