Book Title: Aptavani Shreni 03
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 268
________________ आप्तवाणी-३ २१९ सामनेवाले का दोष देखना ही नहीं, नहीं तो उससे तो संसार बिगड़ जाएगा। खुद के ही दोष देखते रहने चाहिए। अपने ही कर्म के उदय का फल है यह! इसलिए कुछ कहने का ही नहीं रहा न? सब अन्योन्य दोष देते हैं कि आप ऐसे हो, आप वैसे हो। और साथ में बैठकर टेबल पर भोजन करते हैं । ऐसे अंदर बैर बधता है, इसी बैर से दुनिया खड़ी है। इसीलिए तो हमने कहा है कि समभाव से निकाल करना । उससे बैर बंद होते हैं । सुख लेने में फँसाव बढ़ा संसारी मिठाई में क्या है? कोई ऐसी मिठाई है कि जो घड़ीभर भी टिके? अधिक खाई हो तो अजीर्ण होता है, कम खाई हो तो अंदर लालच रहता है। अधिक खाए तो अंदर तरफड़ाहट होती है। सुख ऐसा होना चाहिए कि तरफड़ाहट न हो। देखो न, इन दादा को है न ऐसा सनातन सुख ! सुख मिले, उसके लिए लोग शादी करते हैं, तब उल्टा अधिक फँसाव लगता है। मुझे कोई हेल्पर मिले, संसार अच्छा चले, ऐसा कोई पार्टनर मिले इसलिए शादी करते हैं न? संसार ऐसे आकर्षक लगता है परंतु अंदर घुसने के बाद उलझन होती है, फिर निकला नहीं जाता । लक्कड़ का लड्डू जो खाए वह भी पछताए, जो न खाए वह भी पछताए । शादी करके पछताते हैं, मगर पछताने से ज्ञान होता है। अनुभवज्ञान होना चाहिए न? यों ही किताब पढ़ें तो क्या अनुभवज्ञान होता है? किताब पढ़कर क्या वैराग्य आता है ? वैराग्य तो पछतावा हो तब होता है। इस तरह शादी निश्चित होती है एक लड़की को शादी ही नहीं करनी थी, उसके घरवाले मेरे पास उसे लेकर आए। तब मैंने उसे समझाया, शादी किए बिना चले, ऐसा नहीं है, और शादी करके पछताए बिना चले, ऐसा नहीं है । इसलिए यह सब रोना-धोना रहने दे और मैं कहता हूँ उसके अनुसार तू शादी कर ले। जैसा वर मिले वैसा, परंतु वर तो मिला न । किसी भी प्रकार का दूल्हा चाहिए,

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