Book Title: Aptavani Shreni 03
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 309
________________ २६० बच्चे सभी पार्टनर्स हैं न? आप्तवाणी-३ प्रश्नकर्ता : सुख-दु:ख भुगतने में भी हैं। दादाश्री : आप अपने बीवी-बच्चों के अभिभावक कहलाते हो । सिर्फ अभिभावक को ही क्यों चिंता करनी ? और घरवाले तो बल्कि कहते हैं कि आप हमारी चिंता मत करना । प्रश्नकर्ता : चिंता का स्वरूप क्या है? जन्म हुआ तब तो थी नहीं और आई कहाँ से? दादाश्री : जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती है वैसे-वैसे संताप बढ़ता है। जब जन्म होता है तब बुद्धि होती है? व्यापार के लिए सोचने की ज़रूरत है । लेकिन उससे आगे गए तो बिगड़ जाता है । व्यापार के बारे में दस-पंद्रह मिनट सोचना होता है, फिर उससे आगे जाओ और विचारों का चक्कर चलने लगे, वह नोर्मेलिटी से बाहर गया कहलाता है, तब उसे छोड़ देना । व्यापार के विचार तो आते हैं, लेकिन उन विचारों में तन्मयाकार होकर वे विचार लम्बे चलें तो फिर उसका ध्यान उत्पन्न होता है और उससे चिंता होती है। वह बहुत नुकसान करती है। चुकाने की नीयत में चोखे रहो प्रश्नकर्ता : व्यापार में बहुत घाटा हुआ है तो क्या करूँ? व्यापार बंद करूँ या दूसरा करूँ? क़र्ज़ बहुत हो गया है। दादाश्री : रूई बाज़ार का नुकसान, कभी किराने की दुकान लगाने से पूरा नहीं होता। व्यापार में से हुआ नुकसान व्यापार में से ही पूरा होता है, नौकरी में से नहीं होता। कॉन्ट्रैक्ट का नुकसान, कभी पान की दुकान पूरा होता है ? जिस बाज़ार में घाव लगा हो, उस बाज़ार में ही घाव भरता है, वहाँ पर ही उसकी दवाई होती है। से हमें भाव ऐसा रखना चाहिए कि मुझसे किसी भी जीव को किंचित् मात्र भी दुःख न हो। हमें एक शुद्ध भाव रखना चाहिए कि सभी उधार चुका देना है, ऐसी यदि चोखी नीयत होगी तो सारा उधार कभी न कभी

Loading...

Page Navigation
1 ... 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332