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आप्तवाणी-३
दुःख देने के लिए सर्जित नहीं हुई है। मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों को कोई चिंता या दु:ख नहीं है।
विकल्पी होने के बाद मनुष्य अहंकारी हो जाता है। तब तक अहंकार नोर्मल कहलाता है। साहजिक, वास्तविक अहंकार कहलाता है। विकल्पी हुआ तो उसके लिए ज़िम्मेदार बना। और ज़िम्मेदार बनने के बाद में दु:ख आता है। जब तक विकल्पी नहीं होता, ज़िम्मेदार नहीं बनता, तब तक कुदरत कभी भी किसीको दुःख नहीं देती।
प्रश्नकर्ता : मनुष्य ही दुःख खड़े करते हैं?
दादाश्री : हमने ही खड़े किए हैं, कुदरत ने नहीं। कुदरत तो हेल्पफुल है। ज्ञान का दुरुपयोग हुआ तो शैतान का राज आपके ऊपर हो गया, वहाँ पर फिर भगवान खड़े नहीं रहेंगे।
भगवान स्वरूप, कब?
प्रश्नकर्ता : जीव, आत्मा और भगवान में फर्क क्या है?
दादाश्री : स्वसत्ता में आ जाए, उसके बाद भगवान कहलाता है। पुरुष हो जाने के बाद पुरुषार्थ में आए, तब भगवान कहलाता है, और जब तक प्रकृति की सत्ता में है, तब तक जीव है। ____ 'मैं मर जाऊँगा', जिसे ऐसा भान है, वह जीव है और 'मैं नहीं मरूँगा', ऐसा भान आए वह आत्मा, और फुल स्टेज में आ गए, वे भगवान।
प्रश्नकर्ता : आत्मा भगवान का स्वरूप कब माना जाता है?
दादाश्री : खुद के स्वरूप का भान हो जाए, तब भगवान स्वरूप होने लगता है और फिर जब कर्म के बोझ कम हो जाएँ, और अंत में फुल स्वरूप हो जाए, तब खुद ही परमात्मा बन जाता है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा दैहिक रूप धारण करे, तब जीव कहलाता है?
दादाश्री : आत्मा दैहिक रूप धारण नहीं करता, सिर्फ बिलीफ़ बदलती है। 'मैं चंदूलाल हूँ', यह रोंग बिलीफ़ बैठ गई है। सचमुच में