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आप्तवाणी-३
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के लोग हैं? पहले तू सुधर। मैं सुधारूँ, मैं सुधारूँ वह गलत इगोइज़म है। अरे! तेरा ही तो ठिकाना नहीं, फिर तू क्या सुधारनेवाला है? पहले खुद समझदार होने की ज़रूरत है। 'महावीर' महावीर होने का ही प्रयत्न करते थे और उसका इतना प्रभाव पड़ा है! पच्चीस सौ साल होने पर भी उनका प्रभाव जाता नहीं है। हम किसीको सुधारते नहीं हैं।
किसे सुधारने का अधिकार? आपको सुधारने का अधिकार कितना है? जिसमें चैतन्य है, उसे सुधारने का आपको क्या अधिकार है? यह कपड़ा मैला हो गया हो तो उसे हमें साफ करने का अधिकार है। क्योंकि वहाँ सामने से किसी भी तरह का रिएक्शन नहीं है। और जिसमें चैतन्य है, वह तो रिएक्शनवाला है, उसे आप क्या सुधारोगे? जहाँ खुद की ही प्रकृति नहीं सुधरती, वहाँ दूसरे की क्या सुधारनी? खुद ही लट्ट है। ये सब टोप्स हैं। क्योंकि वे प्रकृति के अधीन है। पुरुष हुआ नहीं। पुरुष होने के बाद ही पुरुषार्थ उत्पन्न होता है। यह तो पुरुषार्थ देखा ही नहीं है।
व्यवहार निभाना, एडजस्ट होकर प्रश्नकर्ता : व्यवहार में रहना है तो एडजस्ट एकपक्षीय तो नहीं होना चाहिए न?
दादाश्री : व्यवहार तो उसे कहते हैं कि 'एडजस्ट' हो जाएँ यानी कि पड़ोसी भी कहें कि, 'सब घर में झगड़े हैं, परंतु इस घर में झगड़ा नहीं है।' उसका व्यवहार सबसे अच्छा माना जाता है। जिसके साथ रास नहीं आए, वहीं पर शक्ति विकसित करनी है, रास आए वहाँ तो शक्ति है ही। नहीं रास आए वह तो कमज़ोरी है। मुझे सबके साथ कैसे रास आ जाता है? जितने एडजस्टमेन्ट्स लेंगे उतनी शक्तियाँ बढ़ेगी और अशक्तियाँ टूटती जाएँगी। सच्ची समझ तो, दूसरी सभी समझ को ताले लगेंगे तभी आएगी।
'ज्ञानी' तो, यदि सामनेवाला टेढ़ा हो तब भी उसके साथ 'एडजस्ट' हो जाते हैं। 'ज्ञानीपुरुष' को देखकर चलो तो सभी तरह के एडजस्टमेन्ट्स' करने आ जाएँगे। उसके पीछे साइन्स क्या कहता है कि वीतराग हो जाओ,