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आप्तवाणी-३
दादाश्री : जो भी वस्तु के रूप में है, उसका स्वरूप होता ही है। आत्मा भी वस्तु है और उसका भी स्वरूप है। उसका तो ग़ज़ब का स्वरूप है। और वही जानना है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र जिसका स्वरूप है, और परमानंद जिसका स्वभाव है, उसे जानना है।
यह दुनिया जिस प्रकार के आत्मा को जानती है, आत्मा वैसा नहीं है। आत्मा खुद ही परमात्मा है, जिसके गुणधर्णों के सामने इस दुनिया की किसी भी चीज़ की गिनती नहीं है।
लेकिन इस जड़ की भी कितनी अधिक शक्ति है कि इसने भगवान को भी रोका है!
संसार, समसरण मार्ग के संयोग संसार स्वभाव से ही विकल्पी है। सबकुछ बनाया है मूल पुद्गल ने। और इसमें आत्मा का तो मात्र विकल्प ही है और कुछ भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता : इसमें आत्मभाव नहीं है?
दादाश्री : नहीं। सारी पुद्गल की ही बाज़ी है। साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स मिलने से आत्मा को विकल्प हुआ और यह सब उत्पन्न हो गया!
प्रश्नकर्ता : यह विकल्प किस आधार पर होता है? दादाश्री : बाहर के संयोगों के दबाव से। प्रश्नकर्ता : बाहर का दबाव अर्थात् किसका? पुद्गल का?
दादाश्री : हाँ। संसार प्रवाह है न, उस प्रवाह में जाते समय संयोगों के दबाव बहुत आते हैं। और वैसा अनिवार्यतः है ही (नियम से होता ही है)। संसार अर्थात् समसरण मार्ग। उसमें निरंतर समसरण की क्रिया हो रही है, निरंतर परिवर्तन हो रहा है। कोई ११ मील पर, कोई १६ मील पर, कोई १७ मील पर तो कोई ७० मील पर होता है। उसमें भी ७० मील के पहले फलांग पर कोई, दूसरे फलाँग पर कोई, ऐसे अलग-अलग जगह पर होते हैं। क्षेत्र अलग इसलिए भाव भी अलग, और इसीलिए सबके