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आप्तवाणी-३
दादाश्री : ज्ञान का स्वरूप आत्मा है और आत्मा का स्वरूप ही ज्ञान है। ज्ञान ही आत्मा है। 'मैं चंदूलाल हूँ', ऐसी जो आपको श्रद्धा है, वह रोंग बिलीफ़ है। और इस श्रद्धा से ही यह जन्म-जन्म की भटकन शुरू हो गई है। 'ज्ञानीपुरुष' जब इस रोंग बिलीफ़ को फ्रेक्चर कर देते हैं, तब राइट बिलीफ़ हो जाती है, तब 'उसे' ज्ञान का स्वरूप समझ में आता है। ज्ञान का स्वरूप समझने के बाद एकदम प्रवर्तन में नहीं आता। समझने के बाद धीरे-धीरे सत्संग से ज्ञान-दर्शन बढ़ता जाता है और उसके बाद प्रवर्तन में आता जाता है। प्रतर्वन में आने पर जब 'केवल' आत्मप्रवर्तन में आ जाए, वही 'केवलज्ञान' कहलाता है। दर्शन-ज्ञान के अलावा अन्य कोई प्रवर्तन नहीं हो, उसे 'केवलज्ञान' कहते हैं।
___ प्रत्यक्ष के बिना बंधन नहीं टूटते प्रश्नकर्ता : ज्ञान क्या है? दादाश्री : ज्ञान खुद ही आत्मा है। प्रश्नकर्ता : तो यह जो शास्त्रों का ज्ञान है, वह क्या है?
दादाश्री : वह श्रुतज्ञान कहलाता है या फिर स्मृतिज्ञान कहलाता है। वह आत्मज्ञान नहीं है। पुस्तकों में आया कि वह जड़ हो गया।
प्रश्नकर्ता : यदि शास्त्रों में भगवान की वाणी हो, तो भी वह जड़ कहलाएगी?
दादाश्री : भगवान की वाणी भी जब पुस्तक में उतरे, तब जड़ कहलाती है। सुनते हैं, तब वह चेतन कहलाती है। लेकिन वह दरअसल चेतन नहीं कहलाती। चेतनपर्याय को छूकर निकलने के कारण वह वाणी चेतन जैसा फल देती है, इसीलिए उसे प्रत्यक्ष वाणी, प्रकट वाणी कहते हैं। और इन शास्त्रों में जो उतर गया, वह जड़ हो गया, वह चेतन को जागृत नहीं कर सकता।
प्रश्नकर्ता : यह तो कितने ही काल से शास्त्रों के आधार पर ही चला आया है।