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आप्तवाणी-३
रहा है' उसे 'देखो', ऐसा कहते हैं ।
इस संसार में डाँटने से कुछ भी सुधरनेवाला नहीं है। उल्टे मन में अहंकार करता है कि मैंने बहुत डाँटा । डाँटने के बाद अगर देखो तो माल जैसा था, वैसा ही होता है, पीतल का हो वह पीतल का और काँसे का हो तो काँसे का ही रहता है । पीतल को मारते रहो तो उसे काला पड़े बगैर रहेगा? नहीं रहेगा । कारण क्या है? तब कहे, काला होने का स्वभाव है उसका। इसलिए मौन रहना चाहिए। जैस कि सिनेमा में नापसंद सीन आए तो उससे क्या हम जाकर परदा तोड़ डालते हैं ? नहीं, उसे भी देखना है। सभी सीन, पसंद हों ऐसे आते हैं क्या? कुछ तो सिनेमा में कुर्सी पर बैठे-बैठे शोर मचाते हैं कि 'अय ! मार डालेगा, मार डालेगा !' ये बड़े दया के डिब्बे देख लो। यह सब तो सिर्फ देखना है । खाओ, पीओ, देखो और मज़े करो!
... खुद को ही सुधारने की ज़रूरत
प्रश्नकर्ता : ये बच्चे शिक्षक के सामने बोलते हैं, वे कब सुधरेंगे? दादाश्री : जो भूल का परिणाम भुगतता है उसकी भूल है। ये गुरु ही घनचक्कर पैदा हुए हैं कि शिष्य उनके सामने बोलते हैं । ये बच्चे तो समझदार ही हैं, लेकिन गुरु और माँ-बाप घनचक्कर पैदा हुए हैं! और बड़ेबूढ़े पुरानी बातें पकड़कर रखते हैं, फिर बच्चे सामने बोलेंगे ही न? आजकल माँ-बाप का चारित्र ऐसा नहीं होता कि बच्चे उनका सामना नहीं करें । ये तो बड़े-बूढ़ों का चारित्र कम हो गया है, इसीलिए बच्चे सामने बोलते हैं। आचार, विचार और उच्चार में पॉज़िटिव (सुलटा) बदलाव होता जाए तो खुद परमात्मा बन सकता है और उल्टा बदलाव हो तो राक्षस भी बन सकता है।
लोग सामनेवाले को सुधारने के लिए सब फ्रेक्चर कर डालते हैं। पहले खुद सुधरें तो दूसरों को सुधार सकेंगे। लेकिन खुद के सुधरे बिना सामनेवाला किस तरह सुधरेगा? इसीलिए पहले आपका खुद का बगीचा सँभालो, फिर दूसरों का देखने जाओ। खुद का सँभालोगे तभी फलफूल मिलेंगे।