________________
आप्तवाणी-३
जीव किसलिए जलता है ? खुद की जगह पर बैठे तो कोई भी उपाधि (बाहर से आनेवाले दुःख) नहीं है । दूसरों के घर में हो तो डर नहीं लगता? आप परक्षेत्र में बैठे हो, पर के स्वामी बनकर बैठे हो और परसत्ता की सत्ता का उपयोग करते हो । 'स्व' को, स्वक्षेत्र को और स्वसत्ता को जानते ही नहीं ।
परसत्ता को जानना, वहाँ पर स्वसत्ता
प्रश्नकर्ता: स्वसत्ता में रहकर मनुष्य अर्थ का मालिक क्यों नहीं बन सकता?
३९
दादाश्री : कौन-से अर्थ का ?
प्रश्नकर्ता : रिद्धि-सिद्धि और स्टेटस के अर्थ का मालिक क्यों नहीं?
I
दादाश्री : 'खुद' उसका मालिक है ही नहीं । वे सब टेम्परेरी चीज़ें हैं। वे तो अपने आप, उनका उदय आता है और प्रकट होती हैं, लेकिन वह ज्ञान का धर्म नहीं है।
प्रश्नकर्ता : स्थितप्रज्ञ दशा में संयोगों का मालिक बनता है न?
दादाश्री : जब तक किसीका भी मालिक है, तब तक स्थितप्रज्ञ दशा नहीं आ सकती। मालिकीपन छूट जाना चाहिए।
प्रश्नकर्ता: साथ ही गुलाम भी नहीं रहना चाहिए न ?
दादाश्री : गुलाम है ही नहीं, चंदूलाल गुलाम है। तू खुद किसका गुलाम है? देहधारी मात्र गुलाम ही है। सभी 'व्यवस्थित' के गुलाम हैं । तू, 'शुद्धात्मा' गुलाम है ही नहीं ।
प्रश्नकर्ता : ईश्वर यह सबकुछ खुद के अंकुश में क्यों नहीं ले लेता?
दादाश्री : यह कुछ भी लेना ईश्वर के हाथ में है ही नहीं !
प्रश्नकर्ता : दिल क्यों क़ाबू में नहीं रहता?