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आप्तवाणी-३
परपरिणति होती ही नहीं है। यह पूरे वर्ल्ड का आश्चर्य है कि निरंतर वे स्वपरिणति में रहते हैं! एक क्षण के लिए भी यदि कोई स्वपरिणति में आ गया तो उसे शास्त्रकारों ने बहुत बड़ा पद दिया है! कृपालुदेव ने कहा है कि, 'ज्ञानीपुरुष देहधारी परमात्मा हैं।' इसीलिए तो कहा है कि और कहाँ पर परमात्मा को ढूँढ रहा है! जो देहधारी के रूप में आए हैं, ऐसे ज्ञानीपुरुष को ढूँढो। देहधारी परमात्मा किसे कहते हैं? कि जिसे परपरिणति हो ही नहीं, निरंतर स्वपरिणति में ही रहे, वह।
पुरुषार्थ, स्वपरिणति में बर्तने का भगवान को स्वपरिणति रहती थी। हमें भी स्वपरिणति रहती है। परपरिणाम को खुद का परिणाम नहीं कहते। आपसे भी हम स्वपरिणति में ही रहने के लिए ऐसा कहते हैं कि आपको' 'चंदूलाल' के साथ में व्यवहार संबंध रखना चाहिए। अन्य किसीके साथ व्यवहार रहा या नहीं भी रहा तो क्या? अन्य लोग तो 'अपने' कमरे में सोने नहीं आते हैं। जब कि ये 'चंदूलाल' तो साथ में ही सो जाएँगे। अतः उनके साथ व्यवाहारिक संबंध रखना। सिर या पैर दुःख रहा हो तो दबा देना। बातचीत करके आश्वासन देना। क्योंकि पड़ोसी है न?
ये कौन-से द्रव्य के परिणाम हैं, वह समझ लेना है। पुद्गल द्रव्य के या चेतन द्रव्य के परिणाम हैं, उसे समझ लेना है। चोंच डूबोते ही परपरिणाम और स्वपरिणाम जुदा हो जाने चाहिए।
जब हम ज्ञान देते हैं, उसके बाद परपरिणति बंद हो जाती है। लेकिन देखना नहीं आता है इसलिए मन के, बुद्धि के हंगामों में फँस जाता है और उलझता रहता है, सफोकेशन का अनुभव करता है। आपको तो बस इतना ही देख लेना है कि कौन-सी परिणति है, स्व या पर। बाहर भले ही पाकिस्तान लड़ रहा हो, हर्ज नहीं है। इस प्रकार से जिसे स्वपरिणति उत्पन्न हो गई, उसे परपरिणाम स्पर्श ही नहीं करते। ये मन के, बुद्धि के, चित्त के स्पदंन उत्पन्न होते हैं, वे पूरण-गलन है। उनके साथ अपना लेना-देना नहीं है। इसमें आत्मा कुछ करता ही नहीं, पुद्गल ही करता है।