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आप्तवाणी-३
दादाश्री : आप ग्राहक को आकर्षित करनेवाले कौन? आपको तो दुकान जिस समय लोग खोलते हों, उसी समय खोलनी। लोग सात बजे खोलते हों, और आप साढ़े नौ बजे खोलें तो वह गलत कहलाएगा। लोग जब बंद करें तब आपको भी बंद करके घर चले जाना चाहिए। व्यवहार क्या कहता है कि लोग क्या करते हैं, वह देखो। लोग सो जाएँ तब आप भी सो जाओ। रात को दो बजे तक अंदर घमासान मचाते रहो, वह किसके जैसी बात! खाना खाने के बाद सोचते हो कि किस तरह पचेगा? उसका फल सुबह मिल ही जाता है न? ऐसा ही सब जगह व्यपार में है।
प्रश्नकर्ता : दादा, अभी दुकान में ग्राहकी बिल्कुल नहीं है तो क्या
करूँ?
दादाश्री : यह 'इलेक्ट्रिसिटी' जाए, तब आप 'इलेक्ट्रिसिटी कब आएगी, कब आएगी' ऐसा करो तो जल्दी आ जाती है? वहाँ आप क्या करते हो?
प्रश्नकर्ता : एक-दो बार फोन करते हैं या खुद कहने जाते हैं। दादाश्री : सौ बार फोन नहीं करते? प्रश्नकर्ता : ना।
दादाश्री : जब यह लाइट गई तब हम तो चैन से गा रहे थे और फिर अपने आप ही आ गई न?
प्रश्नकर्ता : मतलब हमें नि:स्पृह हो जाना है?
दादाश्री : नि:स्पृह होना भी गुनाह है और सस्पृह होना भी गुनाह है। लाइट आए तो अच्छा', ऐसा रखना है, सस्पृह-नि:स्पृह रहने को कहा है। 'ग्राहक आएँ तो अच्छा', ऐसा रखना है, बेकार भाग-दौड़ मत करना। रेग्युलारिटी और भाव नहीं बिगाड़ना, वह 'रिलेटिव' पुरुषार्थ है। ग्राहक नहीं आएँ तो अकुलाना नहीं और एक दिन ग्राहकों के झुंड पर झुंड आएँ तब सबको संतोष देना। यह तो एक दिन ग्राहक नहीं आएँ तो नौकरों को सेठ धमकाता रहता है। तब अगर आप उनकी जगह पर होंगे तो क्या होगा?