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आप्तवाणी-३
दादाश्री : अहंकार का। अहंकार का मोक्ष हो जाए तो वह विलय हो जाता है। जिसका उद्भव हुआ है, उसका विलय होता है। अहंकार ही बंधा हुआ है, आत्मा बंधा हुआ नहीं है। जब ज्ञानीपुरुष समझाएँ, तब अहंकार का मोक्ष हो जाता है।
आत्मा शुद्ध ही है, मोक्ष स्वरूप ही है! कभी भी अशुद्ध हुआ ही नहीं या बंधा ही नहीं!!
यह जगत्, वह 'इगोइज़म' का विज़न है। आकाशकुसुमवत् दिखाए उसका नाम इगोइज़म। कभी आँख पर हाथ दब गया हो तो दो चंद्रमा दिखते हैं। इसमें क्या सत्य है? क्या रहस्य है? अरे भाई, चंद्रमा तो एक का एक ही है। तेरी नासमझी से यों दो दिखते हैं।
दर्पण के आगे चिड़िया बैठती है, वहाँ पर दो चिड़िया होती हैं? फिर भी उसे भ्रांति हो जाती है कि दूसरी चिड़िया है, वह चोंच मारती रहती है। उसे लगती भी होगी। उसे निकाल दें तो भी वह वापस आ जाती है। अगर उसे पूछे कि 'क्या ढूँढ रही हो बहन? आपके न तो पति हैं, न देवर, न ही सास तो क्या ढूँढ रही हो?' वैसे ही इन लोगों को आँटी (गाँठ पड़ जाए उस तरह से उलझा हुआ) पड़ गई है। यह दर्पण तो बड़ा साइन्स है। आत्मा का फ़िज़िकल वर्णन करना हो तो सिर्फ दर्पण ही एक साधन है!
___ 'मैं हूँ, मैं हूँ' करता है तो आत्मा कहता है कि 'जा! तू और मैं अलग!' वह इगोइज़म खत्म हो गया तो 'तू ही है।' अहंकार यों ही खत्म नहीं हो जाएगा, वह चटनी की तरह पीसा जा सके, ऐसा नहीं है। वह तो खुद की भूलें दिखने पर अहंकार खत्म होता है। अहंकार अर्थात् भूल का स्वरूप।
ब्रह्म और परब्रह्म की पहचान
प्रश्नकर्ता : ब्रह्म और परब्रह्म का मतलब क्या है?
दादाश्री : ब्रह्म, वह आत्मा है और परब्रह्म, वह परमात्मा है। जब तक देहधारी होता है, तब तक वह आत्मा माना जाता है, परमात्मा