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आप्तवाणी-३
प्रश्नकर्ता : सिद्ध भगवंतों को, जो कि सिद्धक्षेत्र में हैं, वे आम को देखें तो उनमें पर्याय उत्पन्न होते हैं या नहीं?
दादाश्री : पर्याय के बिना तो आत्मा होगा ही नहीं न! पर्याय होंगे तभी वस्तु तत्व की दृष्टि से अविनाशी और पर्याय की दृष्टि से विनाशी होगी।
प्रश्नकर्ता : हम जो देखते हैं और सिद्ध भगवान जो देखते हैं, उनके पर्याय क्या अलग होंगे?
दादाश्री : वे तो अलग ही हैं न! हम चिपके हुओं को उखाड़ते हैं और सिद्धों को तो कुछ उखाड़ना-करना है ही नहीं। उन्हें तो चिपकते ही नहीं हैं न! सिद्धों का स्वरूप हमारी श्रद्धा में है और वर्तन में यह विनाशी स्वरूप है। लेकिन श्रद्धा में यह विनाशी स्वरूप चला गया है।
प्रश्नकर्ता : 'द्रव्य से, तत्व से संपूर्ण शुद्ध हूँ, सर्वांग शुद्ध हूँ' ऐसा ज्ञान-दर्शन से ही है न? |
दादाश्री : द्रव्य से है, ज्ञान-दर्शन से भी है, और गुण से भी है, सभी गुणों से।
प्रश्नकर्ता : आत्मा के शुद्ध हो जाने के बाद उसके पर्याय रहते हैं क्या?
दादाश्री : पर्याय के बिना तो आत्मा होता ही नहीं। प्रश्नकर्ता : पर्याय होंगे तो फिर आत्मा बदल नहीं जाएगा?
दादाश्री : बिल्कुल भी नहीं बदलता। यह जो लाइट है, वह जड़ है। तो उदाहरण के रूप में इसे लें तो यह लाइट द्रव्य कहलाती है और प्रकाश देने की जो शक्ति है, वह ज्ञान-दर्शन कहलाती है। और प्रकाश में जो ये सभी चीज़े दिखती हैं, वे ज्ञेय कहलाती हैं। अब लाइट को किसी चीज़ में बंद कर दो तो उसे कुछ भी नहीं चिपकता, वह शुद्ध ही रहती है। जैसा आपकी श्रद्धा में है, आत्मा वैसा ही हो जाएगा।
प्रश्नकर्ता : खुद खुद के द्रव्य से भी शुद्ध है, वह कैसे?