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आप्तवाणी-३
प्रकृति के अनुसार एडजस्टमेन्ट... प्रश्नकर्ता : हम सामनेवाले को अबोला तोड़ने का कहें कि 'मेरी भूल हो गई, अब माफ़ी माँगता हूँ।' फिर भी उसका दिमाग़ अधिक चढ़े तो क्या करें?
दादाश्री : तब आप कहना बंद कर देना। उसे ऐसा कोई उल्टा ज्ञान हो चुका है कि 'बहुत नमे नादान'। वहाँ फिर दूर रहना चाहिए। फिर जो हिसाब हो, वही ठीक। परंतु जितने सरल हों न, वहाँ तो हल ला देना चाहिए। घर में कौन-कौन सरल हैं और कौन-कौन टेढ़े हैं, क्या आप इतना नहीं समझते?
प्रश्नकर्ता : सामनेवाला सरल नहीं हो तो उसके साथ हमें व्यवहार तोड़ डालना चाहिए?
दादाश्री : नहीं तोड़ना चाहिए। व्यवहार तोड़ने से टूटता नहीं है। व्यवहार तोड़ने से टूटे ऐसा है भी नहीं। इसलिए वहाँ आपको मौन रहना चाहिए कि किसी दिन चिढ़ेगा तब फिर अपना हिसाब पूरा हो जाएगा। आप मौन रखें तब किसी दिन वह चिढ़े और खुद ही बोले कि आप बोलते नहीं, कितने दिनों से चुपचाप फिरते हो! ऐसे चिढ़े यानी हमारा काम हो जाएगा। अब क्या करें फिर? यह तो तरह-तरह का लोहा होता है, हमें सब पहचान में आते हैं। कुछ को बहुत गरम करें तो मुड़ जाता है। कुछ को भट्ठी में रखना पड़ता है फिर जल्दी से दो हथौड़े मारे कि सीधा हो जाता है। ये तो तरह-तरह के लोहे हैं! इसमें आत्मा, वह आत्मा है, परमात्मा है और लोहा, वह लोहा है। ये सभी धातु हैं।
सरलता से भी सुलझ जाए प्रश्नकर्ता : हमें घर में किसी वस्तु का ध्यान नहीं रहता हो, घरवाले हमें ध्यान रखो, ध्यान रखो कहते हों, फिर भी न रहे तो उस समय क्या करें?
दादाश्री : कुछ भी नहीं, घरवाले कहें, 'ध्यान रखो, ध्यान रखो।' तब आप कहना कि 'हाँ, रलूँगा।' आपको ध्यान रखने का निश्चय करना