________________
१५८
आप्तवाणी-३
...निश्चित करने जैसा 'प्रोजेक्ट' इन मनुष्यों को जीवन जीना भी नहीं आया, जीवन जीने की चाबी ही खो गई है। चाबी बिल्कुल खो गई थी, तो अब वापस कुछ अच्छा हुआ है। इन अंग्रेज़ों के आने के बाद लोग खुद के कट्टर संस्कारों में से ढीले पड़े हैं, इसलिए दूसरों में दखल नहीं देते, और मेहनत करते रहते हैं। पहले तो सिर्फ दख़ल ही देते थे।
ये लोग फिजूल मार खाते रहते हैं। इस जगत् में आपका कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। आप संपूर्ण स्वतंत्र हो। आपका प्रोजेक्ट भी स्वतंत्र है, लेकिन आपका प्रोजेक्ट ऐसा होना चाहिए कि किसी जीव को आपसे किंचित् मात्र दुःख न हो। आपका प्रोजेक्ट बहुत बड़ा करो, सारी दुनिया जितना करो।
प्रश्नकर्ता : ऐसा संभव है?
दादाश्री : हाँ, मेरा बहुत बड़ा है। किसी भी जीव को दुःख न हो उस तरह से मैं रहता हूँ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन दूसरों के लिए तो वह संभव नहीं है न?
दादाश्री : संभव नहीं, लेकिन उसका अर्थ ऐसा नहीं कि सब जीवों को दुःख देकर अपना प्रोजेक्ट करो।
ऐसा कोई नियम तो रखना चाहिए न कि किसीको कम से कम दुःख हो? ऐसा प्रोजेक्ट कर सकते हैं न। मैं आपको जो बिल्कुल असंभव है, वह करने को तो नहीं कहता न!
...मात्र भावना ही करनी है! प्रश्नकर्ता : किसीको दुःख ही नहीं, तो फिर हम दूसरों को दु:ख दें तो उसे दु:ख किस प्रकार से होता है?
दादाश्री : दुःख उसकी मान्यता में से गया नहीं न? आप मुझे धौल मारो तो मुझे दुःख नहीं होगा, परंतु किसी और को तो उसकी मान्यता में धौल से दुःख है, इसीलिए उसे मारोगे तो उसे दुःख होगा ही। रोंग