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आप्तवाणी-३
प्रतिक्रमण करना चाहिए, उस शंका का निवारण करना चाहिए। और 'अपना' स्वरूप तो वही का वही है, अव्याबाध! 'ज्ञानीपुरुष' ने जिस सिंहासन पर बैठाया है, उस सिंहासन पर बैठे-बैठे काम करते रहना है!!
प्रश्नकर्ता : यह पीड़ा किसे होती है? आत्मा को?
दादाश्री : आत्मा को पीड़ा ने कभी भी स्पर्श किया ही नहीं। और यदि पीड़ा स्पर्श करे, आत्मा का स्पर्श हो जाए तो वह पीड़ा सुखमय हो जाएगी। आत्मा अनंत सुख का धाम है। माने हुए आत्मा को पीड़ा होती है, मूल आत्मा को कुछ भी नहीं होता। मूल आत्मा तो अव्याबाध स्वरूप है ! बिल्कुल ही बाधा-पीड़ा रहित है!! इस देह को कोई छुरी मारे, काटे तो बाधा-पीड़ा उत्पन्न होती है, लेकिन आत्मा को कुछ भी नहीं होता।
आत्मा : अव्यय
आत्मा अव्यय है। मन-वचन-काया का निरंतर व्यय हो रहा है। व्यय दो प्रकार के : एक अपव्यय और दूसरा सद्व्यय। बाकी आत्मा तो अव्यय है। अनंत काल से भटक रहा है, कुत्ते में, गधे में गया, लेकिन आत्मा का इतना-सा भी व्यय नहीं हुआ है।
आत्मा : निरंजन, निराकार प्रश्नकर्ता : आत्मा को निरंजन, निराकार क्यों कहा है?
दादाश्री : निरंजन अर्थात् उसे कर्म लग नहीं सकते। निराकार अर्थात् उसकी कल्पना की जा सके, ऐसा नहीं है। बाकी उसका आकार है, लेकिन वह स्वाभाविक आकार है, लोग समझते हैं वैसा आकार नहीं है, लोग तो कल्पना में पड़ते हैं कि आत्मा गाय जैसा है या घोड़े जैसा, लेकिन वह ऐसा नहीं है। आत्मा का स्वाभाविक आकार है, कल्पित नहीं है। आत्मा निराकार होने के बावजूद देह के आकार का है। जिस भाग पर देह का आवरण है, उस भाग में जो आत्मा है, उसका वैसा ही आकार है।
आत्मा भाजन के अनुसार संकुचन और विकास करता है, भाजन के अनुसार प्रकाश देता है (प्रकाशमान होता है)। अंतिम अवतार के बाद जब देह नहीं रहती, तब पूरे लोक को प्रकाशमान करता है।