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गुण-संक्रमण शीतल प्रभो! तुम शिवदायक और चांद के समान शीतल हो। तुम अमृत-तुल्य हो। तुम्हारे ध्यान से ताप-संताप मिट जाता है। __क्रोध, मान, माया और लोभ-यह कषाय-चतुष्क अग्नि से अधिक तीव्र आग है। तुमने शुक्ल-ध्यान रूपी जल के द्वारा उसे बुझा दिया। फलतः तुम शीतलीभूत हो गए।
इन्द्रियां और मन प्रचंड, दुर्जय और दुर्दान्त हैं। तुमने मन को स्थिर कर उन्हें जीत लिया और उपशम भाव धारण कर चित्त को शांत कर लिया शीतल जिन शिवदायका साहिबजी!
शीतल चंद समान हो, निसनेही। शीतल अमृत सारिषा साहिबा जी!
__ तप्त मिटै तुम ध्यान हो, निसनेही। क्रोध मान माया लोभ ए साहिब जी,
अग्नि सूं अधिकी आग हो, निसनेही। शुकल ध्यान रूप जल करी साहिबजी,
शीतलीभूत म्हाभाग हो, निसनेही।। इन्द्रिय नोइन्द्रिय आकरा साहिब जी,
दुर्जय नैं दुर्दात हो, निसनेही। तैं जीत्या मन थिर करी साहिबजी, धर उपशम चित शांत हो निसनेही।
चौबीसी १०.१,४,५ १४ मार्च २००६