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इन्द्रिय चेतना : विषय और विकार (५)
जो शब्द में अतृप्त होता है, उसके परिग्रहण में आसक्तउपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभग्रस्त होकर दूसरे की शब्दवान् वस्तुएं चुरा लेता है।
वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और शब्द परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिँ। अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ।। तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुबई से।
उत्तरज्झयणाणि ३२.४२,४३
२१ अक्टूबर
२००६
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