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मन
चेतना के विकास का दूसरा स्तर है— मन । वह दीर्घकालिकी संज्ञा है। इन्द्रियों के द्वारा अपने-अपने विषयों का ग्रहण होता है। उनका संकलन मन के द्वारा होता है। इसलिए मन संकलनात्मक संज्ञान है । वह त्रैकालिक संज्ञान है, इसलिए अतीत की स्मृति, वर्तमान में चिंतन और भविष्य की कल्पना इसका कार्य है।
इन्द्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहि त्रैकालिकं संज्ञानं मनः ।
मनोनुशासनम् १.२
१२ अक्टूबर
२००६
३११
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