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इन्द्रिय चेतना : विषय और विकार ( ८ )
जो गन्ध में अतृप्त होता है उसके परिग्रहण में आसक्त - उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त होकर दूसरे की गन्धवान् वस्तुएं चुरा लेता है।
वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और गन्ध परिग्रहण में अतृप्त होता है । अतृप्ति-दोष के कारण उसके माया - मृषा की वृद्धि होती है। माया - मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता ।
गंधे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अतुद्विदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ।। तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थापि दुक्खा न विमुच्चई से ।। उत्तरज्झयणाणि ३२.५५,५६
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२४ अक्टूबर २००६
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