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तन्मय ध्यान (३) साधक तन्मय हो सकता है। उसके लिए आत्मवित् साधक अपनी आत्मा को अनेक रूप में परिणत कर सकता है। परिणति का हेतु है परिणमन। साधक अपने इष्ट की भावात्मक मूर्ति का निर्माण करता है, वह उसी रूप में परिणत हो जाता है, तन्मय हो जाता है।
जैसे स्फटिक मणि का जिस उपाधि के साथ संबंध होता है वह उसी उपाधि के साथ तन्मय हो जाता है-नील, पीत आदि रूपों में बदल जाता है।
येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित्। तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा।।
तत्त्वानुशासन १६१
१ अगस्त २००६
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