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अन्यत्व अनुप्रेक्षा मनुष्य का सबसे पहले संबंध शरीर से होता है। शरीर और आत्मा में भेदानुभूति नहीं होती। जो शरीर है वह मैं हूं, और जो मैं हूं वह शरीर है-इस अभेदानुभूति के आधार पर ही मनुष्य के ममत्व का विस्तार होता है। सम्यग् दर्शन का मूल अन्यत्व भावना है। इसे विवेक भावना या भेदज्ञान भी कहा जाता है। शरीर और आत्मा की भिन्नता की भावना पुष्ट होने पर मोह की ग्रंथि खुल जाती है। सहज ही मन स्थिर हो जाता है। इसीलिए पूज्यपाद ने इस अनुप्रेक्षा को तत्त्वसंग्रह कहा है-जीवोऽन्यः पुद्गलाश्चान्यः इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः ।
६ जून २००६.
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