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क्रोधविजय और आभामंडल
वासुपूज्य प्रभो ! तुम्हारी इन्द्र से भी अधिक शोभा है। तुम कभी कुपित नहीं होते। इसलिए तुम्हारी वाणी में मिश्री - मिश्रित दूध जैसी मिठास हो गयी ।
गजकुंभ का दलन करने वाले तथा सिंह को मारने वाले योद्धा के लिए भी अपनी आत्मा को वश में करना कठिन है। तुम्हारी इस वाणी को सुनकर काफी मनुष्य जाग उठे ।
इन्द्र थकी अधिका ओपै, करुणागर कदेय नहीं कोपै । वर साकर दूध जिसी वाणी, प्रभु वासुपूज्य भजलै प्राणी । गज कुम्भ दलै मृगराज हणी, पिण दोहिली निज आतम दमणी । इम सुण बहु जीव चेत्या जाणी, प्रभु वासुपूज्य भजलै प्राणी ॥ चौबीसी १२.४,६
२ जून २००६
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