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तन्मय ध्यान (२) धर्म और धर्म करने वाला यह द्वैत है।
जब व्यक्ति की चेतना धर्म में परिणत नहीं होती, उस अवस्था में धर्म और धर्मकर्ता का द्वैत बना रहता है। जब चेतना धर्म में परिणत हो जाती है, उस अवस्था में धर्म और धर्मकर्ता • का द्वैत समाप्त हो जाता है। उस समय में इस भाषा का प्रयोग किया जा सकता है कि आत्मा धर्म है।
इसका सिद्धांत यह है-जिस काल में चेतना में जो परिणमन होता है उस समय वह तन्मय बन जाती है।
परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तन्मयत्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो।।
प्रवचनसार ८
३१ जुलाई २००६