Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
छाया
श्रुतनिस्त्रितः द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अर्थावग्रहश्चैव व्यञ्जनावग्रहश्चैव । अथ किं सः व्यञ्जनावग्रहः १ व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तस्तद्यथाश्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, जिव्हेन्द्रिय
व्यञ्जनावग्रहः, स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, सोऽयं व्यञ्जनावग्रहः ॥ भाषा टीका-शास्त्र के अनुसार वह ज्ञान दो प्रकार का होता है - अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह।
प्रश्न-व्यञ्जनावग्रह क्या है ?
उत्तर-व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का होता है- कर्ण इन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, घ्राण इन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, रसना इन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, स्पर्शन इन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह । यह व्यञ्जनावग्रह है।
संगति-इस सूत्र में बताया गया है कि यद्यपि अर्थ (प्रगट रूप पदार्थ) के अवग्रह ईहा, अवाय और धारणा चार भेद होते हैं, किन्तु अप्रगट रूप पदार्थ का केवल अवग्रह ही होता है। अन्य ईहा आदि नहीं होते । अप्रगट रूप पदार्थ की दूसरी विशेषता यह होती है कि यह पांचों इन्द्रियों और छटे मन सभी से नहीं होता, वरन् चक्षु के अतिरिक्त केवल चार इन्द्रियों से ही होता है। व्यञ्जनावग्रह में चक्षु और मन से काम लेना नहीं पड़ता। अस्तु व्यञ्जनावग्रह बहुविध आदि के भेद से बारह प्रकार का होता है। उनमें से प्रत्येक भेद का ज्ञान चार इन्द्रियों (स्पर्शन-रसन-प्राण और कर्ण) से हो सकता है। अतः बारह को चार से गुणा देने पर अप्रगट रूप पदार्थ (व्यञ्जन) के अड़तालीस भेद हुए। जिनको प्रगट रूप पदार्थ के २८८ भेदों में जोड़ने से मत्तिज्ञान के कुल ३३६ भेद होते हैं। "श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥”
१. २०. मईपुव्वं जेण सुअं न मई सुअपुग्विा ॥
नन्दि० सूत्र २४. सुयनाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अंगपविढे चेव अंग बाहिरे चेव ॥
स्थानांग स्था० २, उद्देश १, सू० ७१.