Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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अष्टमोऽध्याय :
___उच्चगोत्रं असातावेदनीयः इत्यादिः एकः पुण्यः एकः पापः । · भाषा टीका - साता वेदनीय, तिर्यच आयु, मनुष्यायु, देवायु, शुभनाम, उच गोत्र और असाता वेदनीय आदि । एक पुण्य रूप हैं और एक पाप रूप हैं।
संगति - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय यह चार घातिषा कर्म कहलाते हैं। ये चारों ही अशुभ (पाप) रूप होते हैं । शेष चारो अपातिया कर्म कहलाते हैं। और यह पाप तथा पुण्य दोनों रूप हैं।
इति श्री-जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संगृहीते
__ तत्स्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये # अष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥८॥ *