Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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तृतीयाध्याय :
इन्द्रसामानिकवायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ।
देविंदा परिसोववन्नगा
४, ४.
"तायत्तीसगा लोगपाला
एवं सामाणिया अणियाहिवई.. आयरक्खा ।
छाया
देवकिव्विसिए... आभिजोगिए ।
।
[ ६७
स्थानांग स्थान ३, उ० १, सू० १३४.
श्रपपा० जीवोप० सू० ४१.
चडव्विहा देवाण ठिती पण्णत्ता, तं जहा- देवे णाममेगे देवसिखाते नाममेगे देवपुरोहिते नाममेगे देवपज्जलणे नाममेगे ।
स्थानांग स्थान ४, उ० १ सू० २४८.
देवेन्द्राः एवं सामानिकाः त्रायस्त्रिंशका : लोकपालाः परिषदुत्पन्नकाः अनीकपतयः आत्मरक्षाः ।
देवकिल्विषिकाः अभियोग्याः ।
चतुर्विधा देवानां स्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा देवः नामैक: देवस्नातकः नामैकः देवपुरोहितः नामैकः देवप्रज्वलनः नामैकः ।
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भाषा टीका - देवेन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, पारिषद् अथवा परिषदुत्पन्न अनी पति अथवा अनीक, आत्मरक्ष, देवकिल्बिष और अभियोग्य । ( एक एक के भेद
हैं।)
देवों की स्थिति चार प्रकार की होती है— देव, देवस्नातक, देवपुरोहित और देव
प्रज्वलन |
संगति - सूत्र में देव समूहों के दश भेद बतलाये गये हैं। उपरोक्त आगम वाक्य में थोड़े शाब्दिक हेरफेर के साथ नौ भेद तो बतला दिये हैं। दसवें भेद प्रकीर्णक के स्थान