Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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चतुर्थऽध्यायः
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भाषा टीका-सारस्वत, आदित्य, वन्हि, वरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्यावाध आग्नेय और रिष्ट यह सब के सब लौकान्तिक होते हैं।
संगति-सूत्र में संक्षेप से आठ भेद लिखे हैं। किन्तु आगम में विस्तार से नौ भेद लिखे गये हैं। आगम के वन्हि और आग्नेय को सूत्र में केवल वन्हि में ही अन्तर्भाव कर लिया है। आगम में अरुण को वरुण और अरिष्ट को रिष्ट नाम दिया गया है, जो कि कोई वास्तविक भेद नहीं है।
विजयादिषु द्विचरमाः।
विजय वेजयंत जयंत अपराजिय देवत्ते केवइया दकिदिया अतीता परमत्ता ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सस्थि अट्ट वा सोलस वा इत्यादि ।
प्रज्ञापना० पद १५ इन्द्रियपद छाया- विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु देवत्त्वे कियान्ति द्रव्येन्द्रियाणि
अतीतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! कस्यास्ति कस्य नास्ति, यस्यास्ति
अष्ट वा षोडश वा इत्यादि। प्रश्न-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित के देवपने में कितनी द्रव्येन्द्रियाँ बीत जाती हैं।
उत्तर-गौतम ! किसी के होती हैं और किसी के नहीं भी होती है जिनके होती हैं तो पाठ या सोलह होती हैं।
संगति-एक जन्म की आठ द्रव्येन्द्रिय (स्पर्शन, रसना, दो नाक, दो आंख और दो कान) मानी गई हैं। अतएव दो जन्मों की सोलह द्रव्येन्द्रियाँ हुई। उपरोक्त विमानों से आने वाले प्रायः तो उसी भव में मोक्ष को प्राप्त होते हैं। जिनको उसी भव में मोक्ष नहीं होती वह दूसरे भव में मोक्ष चले जाते हैं। किन्तु दो बार चार अनुत्तर विमानों में जाकर मोक्ष जाना तो उनका बिलकुन्न निश्वित है।