Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari

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Page 294
________________ २७६ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : ध्यान का वर्णन--- २७–उत्तम संहनन वाले का अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त एकाग्रचिन्तानिरोध करना ध्यान है। २८--आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धम्यध्यान, और शुक्लध्यान यह चार प्रकार के ध्यान हैं। २९-धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं । चार प्रकार के आर्तध्यान३०--अप्रिय पदार्थ का संयोग होने पर उसके दूर करने के लिये वारंवार चिन्तवन करना सो [ अनिष्टसंयोगज नाम का प्रथम ] आर्तध्यान है। ३१-पिय पदार्थ का वियोग होने पर उसको प्राप्ति के लिये बारंवार चिन्तवन करना [ सो इष्टवियोगज नामका द्वितीय आर्तध्यान है। ३२--वेदना का बारंबार चिन्तवन करना [ सो वेदना जनित तीसरा भात ध्यान है। ] ३३- और आगामी विषय भोगादिक का निदान करना सो निदान नामका चौथा भात्तध्यान है। ३४- वह आर्तध्यान मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, देशविरत और छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान बालों के होता है । चार प्रकार के रौद्रध्यान३५- हिंसा, अनुत, चोरी, और विषयों की रक्षा से रौद्रध्यान चार प्रकार का होता है । यह प्रथम पांच गुणस्थान वालों के होता है । .धर्म्यध्यान के चार भेद३६- आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकषिचय और संस्थान विचय यह चार प्रकार का धम्यध्यान है। चार प्रकार के शुक्ल ध्यान का वर्णन३७–आदि के दो शुक्ल ध्यान भुतकेवली के होते हैं, श्रुत केवली के धर्म्य

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