Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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प्रथमाध्यायः
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तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दव्वमो खित्तमओ कालो भावओ इत्यादिकम् ॥
नन्दिसूत्र मनःपर्ययज्ञानाधिकार. छाया- ऋद्धिमाप्ताप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिक
गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां मनःपर्ययज्ञानं समुत्पद्यते । तत्समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-द्रव्यत : क्षेत्रत : कालतः
भावत : इत्यादिकम् ॥ भाषा टीका-मनःपर्यय ज्ञान केवल उन जीवों के ही होता है जो गर्भज मनुष्य हों, उनमें भी कर्म भूमि के हों, उनमें भी संख्यात वर्ष की आयु वाले हों-असंख्यात वर्ष की भायु वाले नहीं ; फिर उनमें भी पर्याप्तक हों अपर्यापक न हों, उनमें भी सम्यग्दृष्टि हों, फिर उनमें भी सप्तम गुणस्थान अप्रमत्तसंयत वाले हों, और फिर उनमें भी ऋद्धिप्राप्त हों।
संक्षेप से मनःपर्यय ज्ञान चार प्रकार से होता है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से इत्यादि।
संगति - सूत्र में बतलाया गया है कि अवधि और मनःपर्यय ज्ञान में क्या भेद है। मनःपर्यय ज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा अधिक विशुद्ध होता है। अवधिज्ञान का क्षेत्र तीन लोक हैं, जब कि मनःपर्यय ज्ञान का क्षेत्र केवल मध्यलोक, उसमें भी अदाई द्वीप
और उसमें भी वह कर्मभूमियां हैं जहां केवल चौथा काल या उसकी सन्धि हो । अवधिज्ञान के स्वामी चारों गतियों में हैं, किन्तु मनःपर्यय ज्ञान के स्वामी ऊपर आगम वाक्य के अनुसार बहुत थोड़े होते हैं । अवधि ज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान के विषय में भी बड़ा भेद है जैसा कि अगले सूत्रों से प्रगट होगा। आगम में यह सब बातें बड़े विस्तार से आई हैं। यह सम्भव नहीं हो सका कि इन सब बातों को दिखलाने वाले छोटे वाक्य उद्धृत किये जाते । किन्तु यह अवश्य है कि आगम और सूत्र दोनों में इस विषय पर मत भेद नहीं है।
-- "मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु,”
२१५.