Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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अष्टमोऽध्यायः
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के उदय से जो नाक कान आदि को योग्य स्थान में निर्माण करता है, सो तो स्थान निर्माण नाम कर्म है और जो उन्हें योग्य लम्बाई चौड़ाई आदिका प्रमाण लिये रचना करता है, सा प्रमाण निर्माण है।
___४२. जिस प्रकृति के उदय से अचिंत्यविभूति संयुक्त तीर्थकरपने की प्राप्ति हो उसे तीर्थकरनामकर्म कहते हैं।
इस प्रकार नामकर्म की बयालीस मूल प्रकृतियां हैं । किन्तु इनके अवान्तर भेदों को जोड़ने से नामकर्म की तिरानवे उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं।
उच्चैर्नीचैश्च ।
८, १२. गोए णं भंते ! कम्मे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पएणते तं जहा-उच्चागोए य नीयागोए य ।
प्रज्ञापना पद २३, उ० २, सू० २६३. छाया- गोत्रं भगवन् ! कर्म कतिविधं प्रज्ञप्तं? गौतम ! द्विविधं प्रज्ञप्तं,
तद्यथा-उच्चगोत्रश्च नीचगोत्रश्च । प्रश्न - भगवन् ! गोत्र कर्म कितने प्रकार का कहा गया है? उत्तर-गोतम ! वह दो प्रकार क है-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम ।
८, १३. अंतराए णं भंते ! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-दाणंतराइए, लाभंतराइए, भोगंतराइए, उवभोगंतराइए, वीरियंतराइए ।
___ प्रज्ञापना पद २३ उद्दे०२ सूत्र २६३. छाया- अन्तरायः भगवन् ! कर्म कतिविधः प्रज्ञप्तः १ गोतम! पञ्चविधः
प्रज्ञप्तः, तद्यथा-दानान्तरायिकः, लाभान्तरायिका, भोगान्तरायिकः, उपभोगान्तरायिकः, वीर्यान्तरायिकः।