Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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दशमोऽध्यायः
[ २३५
प्रकार हे गौतम! संग रहित होने से, राग ( रंग ) रहित होने से और स्वाभाविक ऊर्ध्वं गमन स्वभाव होने से कर्म रहित जीव के भी गति होती है ।
प्रश्न- भगवन् ! बंधन के नष्ट होने से कर्म रहित जीव के किस प्रकार गति होती
है ?
उत्तर
—
- हे गौतम! जिस प्रकार कल नाम के अनाज की फली, मूंग की फली, उड़द की फली, सेंभल की फली अथवा एरण्ड की फली को धूप में रख कर सुखाने से जब वह फूटती है तो बीज टूट २ कर एक ओर को ही जाते हैं उसी प्रकार हे गौतम! [ कर्म ] बन्धन के नष्ट होने से कर्म रहित जीव की गति होती है ।
प्रश्न
- भगवन् ! इंधन रहित होने से कर्म रहित जीव के गति किस प्रकार होती
है ?
उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार इंधन से निकला हुआ धुआं बिना किसी बाधा हुए स्वभाव से ऊपर को ही जाता है उसी प्रकार इंधन रहित होने से कर्म रहित जीव के गति होती है।
प्रश्न
- भगवन् पूर्व प्रयोग से कर्म रहित के गति किस प्रकार कही गई है ?
—
-
उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार धनुष से छोड़े हुए बाण की गति निर्बाध रूप से अपने लक्ष्य की ओर ही होती है, उसी प्रकार हे गौतम! संग रहित होने से राग (रंग) रहित होने से, स्वाभाविक ऊर्ध्व गमन र भाव वाला होने से, बन्धन के नष्ट होने से, इंधन रहित होने से और पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव के गति कही गई है ।
जीव का जब ऊर्ध्व गमन स्वभाव है तो फिर वह लोक के अन्त में ही जाकर क्यों ठहर जाता है ? आगे क्यों नहीं चला जाता ? इसका उत्तर सूत्र द्वारा दिया जाता है
धर्मास्तिकायाभावात् ।
१०, ८.
चहिं ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचातेंति बहिया लोगंता गमणताते, तं जहा गतिमभावेणं णिरुवग्गहताते लक्खताते लोगाणुभावेणं ।
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स्थानांग स्थान ४, ४०३, सु० ३३७