Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
..... ''महिड्ढीया महज्जुइया जाव महाणुभागा इड्ढीए पएणत्ते, जाव अचुओ, गेवेजणुत्तरा य सव्वे महिड्ढीया ।
जीवाभिगम० प्रतिपत्ति ३ सूत्र २१७ वैमानिकाधिकार । छाया- सौधर्मेंशानयोः देवाः कीदृक् कामभोगान् प्रत्यनुभवमानाः
विहरन्ति ? गौतम! इष्टाः शब्दाः इष्टाः रूपाः यावत् स्पर्शाः एवं यावत् |वेयकाः अनुत्तरोपपातिकाः अनुत्तराः शब्दाः एवं यावत् अनुत्तराः स्पर्शाः। महर्द्धिकाः महदद्युतिकाः यावत् महानुभागाः ऋद्धयः प्रज्ञप्ताः, यावत्
अच्युतः, ग्रैवेयकाः अनुत्तराश्च सर्वे महर्द्धिकाः..... प्रश्न-सौधर्म तथा ईशान स्वर्गों में देव कैसे २ काम भोगों को भोगते हुए विहार करते हैं।
उत्तर-गौतम । वह इष्ट शब्द, इष्ट रूप, इष्ट गंध, इष्ट रस और इष्ट स्पर्श का वैयक तथा अनुत्तरों तक आनन्द लेते हैं।
अच्युत स्वर्ग तक वह महानुभाग बड़ेभारी ऋद्धि वाले और महान् कान्ति वाले होते हैं । अवेयक और अनुत्तरों के निवासी देव भी महान ऋद्धि वाले होते हैं
संगति-यह पीछे बतलाया जा चुका है कि आगमों में सभी विषयों का प्रतिपादन विस्तार से किया गया है। जिवाधिगम प्रतिपत्ति सूत्रमें तथा प्रज्ञापना सूत्र में देवों के ऊपर २ अधिक तथा हीन गुणों पर भी बड़े विस्तार से प्रकाश डाला गया है। किन्तु किसी छोटे वाक्य के न होने से यहां किसी उपयुक्त पद का उद्धरण न किया जा सका। सूत्र में बतलाया है कि ऊपर २ देवों की अधिकाधिक आयु होती है, प्रभाव भी अधिकाधिक ही होता जाता है, सुख भी एक कल्प से दूसरे आदि में अधिक २ ही है, कान्ति भी अधिक २ होती जाती है, लेश्या अधिकाधिक विशुध्द होती जाती है, इन्द्रियों की विषय ग्रहण करने की शक्ति भी बढ़ती जाती है। और अवधि ज्ञान का विषय भी उनका अधिक २ ही होता जाता है।