Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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नवमोऽध्यायः
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७. अपाय भावना अथवा आस्रव भावना [ इस लोक में कर्म इस प्रकार दुःख देने वाले हैं और वह इस प्रकार आत्मा में आते हैं आदिका चिंतबन करना।]
८. संवर भावना-जिस नाव में छिद्र होता है वह नदी के पार नहीं जा सकती। किन्तु जिस नाव में छिद्र नहीं होता वही पार लेजा सकती है। इसी प्रकार जब
आत्मा में नवीन कर्मों के आने का मार्ग रुक कर संवर होता है तभी यह उत्तम मार्ग पर चलकर क्रमशः संसार रूपी समुद्र को पार करता है। ___१. निर्जरा भावना-[संवर होने के पश्चात् ओत्मा में बाकी रहे कर्मों को तप मादि के द्वारा नष्ट करना निर्जरा कहलाता है।]
१०. लोक भावना -[लोक के स्वरूप का विशेष रूप से चितवन करना।]
२२. बोधि दुर्लभ भावना-समझो, ज्ञान क्यों नहीं प्राप्त करते । मरण के पश्चात् फिर ज्ञान होना दुर्लभ है । इस प्रकार विचार करने के लिये रात्रियां बारंबार नहीं
आती और यह जन्म भी बारबार नहीं प्राप्त होता। [इस प्रकार ज्ञान की दुर्लभता का विचार करना ।
१२. धर्म भावना – उत्तम धर्म का सुनना बड़ा दुर्लभ है [इस प्रकार धर्म के ‘स्वरूप का बारंवार चिन्तवन करना । ]
संगति- इन सत्रों और भागमवाक्य का शब्द साम्य ध्यान देने योग्य है। मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः । नो विनिहन्नेजा।
उत्तराध्ययन अ०२ प्रथम पाठ. सम्म सहमाणस्स"णिज्जरा कजति ।
___ स्थानांग स्थान ५ उ०१ सू०४०६. छाया- न विहन्येत्, सम्यक् सहन्तः निर्जरा क्रियते ।
भाषा टीका-पीछे न हटे। भली प्रकार सहन करने वाले के निर्जरा होती है।