Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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नवमोऽध्यायः
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प्रश्न- भगवन् ! एक प्रकार के बंधवाले वीतरामछद्मस्थ के कितनी परीषह कही गई हैं?
उत्तर - गौतम ! उतनी ही होती हैं जितनी छह प्रकार के बन्धवाले के होती हैं।
प्रश्न - भगवन् ! एक प्रकार के बन्धवाले सयोगि भवस्थ केवली के कितनी परीषह कही गई हैं ?
उत्तर - गौतम ! ग्यारह परीषह कही गई हैं। किन्तु वेदना एक साथ केवल नौ की ही होती है। शेष छै प्रकार के बन्ध वाले के समान होती हैं । हा प्रश्न -भगवन् ! बिना बन्धवाले अयोगि भवस्थ केवलो के कितनी परीषह होती
उत्तर- गौतम ! ग्यारह परीषह कही गई हैं। किन्तु अनुभव नौ का ही होता है। जिस समय शीतपरोषह होती है उसी समय उष्णपरीषह नहीं होती । जिस समय उष्णपरीषह होती है उस समय शीतपरोषह नहीं होती । जिस समय चर्यापरीषह होती है उस समय शय्या परीषह नहीं होती। जिस समय शय्या परीषह होती है उसी समय चर्यापरीषह नहीं होती।
सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम् ।
९, १८. सामाइयत्थ पढम, छेदोवट्ठावणं भवे वीयं । परिहारविसुद्धीयं, सुहुम तह संपरायं च ॥३२॥ अकसायमहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा । एवं चयरित्तकर, चारित्तं होइ आहियं ॥३३॥
उत्तराध्ययन अ० २८, गाथा ३२-३३ छाया- सामायिकमत्र प्रथम, छेदोपस्थानं भवेदद्वितीयम् ।
परिहारविशुद्धिकं, सूक्ष्मं तथा सम्परायं च ॥३२॥ अकषायं यथाख्यातं, छद्मस्थस्य जिनस्य वा। एतच्चयरिक्तकरं, चारित्रं भवत्याख्यातम् ॥ ३३॥