Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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षष्ठोऽध्यायः
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णाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगबंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा! नाणपडिणीययाए णाणनिण्हवणयाए णाणंतराएणं णाणप्पदोसेणं णाणचासायणाए णाणविसंवादणाजोगेणं, ....... "एवं जहा णाणावरणिजं नवरं दसणनाम घेत्तव्वं ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति श० ८, उ० १, सू० ७५-७६. छाया- ज्ञानावरणीयकामणशरीरप्रयोगबन्धः भगवन् ! कस्य कर्मणः
उदयेन ? गौतम! ज्ञानमत्यनोकतया ज्ञाननिन्हवतया ज्ञानान्तरायण ज्ञानप्रदोषेण ज्ञानात्याशातनया ज्ञानविसंवादनायोगेन एवं यथा
ज्ञानावरणीयं नवरं दर्शननाम ग्रहीतव्यम् । प्रश्न - भगवन् ! किस कर्म के उदय से ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर का प्रयोगबन्ध होता है ?
उत्तर-गौतम ! ज्ञानी को शत्रुता करने से, ज्ञान को छिपाने से, ज्ञान में विघ्न डालने से, ज्ञान में दोष निकालने से, ज्ञान का अविनय करने से, ज्ञान में व्यर्थ का वाद विवाद करने से ज्ञानावरणीय कर्म का आसूव होता है। इन उपरोक्त कार्यो में दर्शन का नाम लगाकर कार्य करने से दर्शनावरणीय कर्म का आसूष होता है।
दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेदस्य।
परदुक्खणयाए परसोयणयाए परजूरणयाए परतिप्पणयाए परपिट्टणयाए परपरियावणयाए बहणं पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए एवं खलु गोयमा! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जा कम्मा किजन्ते ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श०७ उ० ६ सू० २८६. छाया- परदुःखनतया परशोकनतया परझुरणतया परतृपणतया परपि