Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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षष्ठोऽध्यायः
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HWAN
पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा-अरहंताणं अवन्नं वदमाणे १, अरहंतपन्नतस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे २, आयरियउवज्झायाणं अवन्नं वदमाणे ३, चउवएणस्स संघस्स अवएणं वदमाणे ४, विवक्तवबंभचेराणं देवाणं अवन्नं वदमाणे ।
स्थानांग स्थान ५, उ० २ सू० ४२६. छाया- पञ्चभिः स्थानैः जीवा दुर्लभबोधिकतया कर्म प्रकुर्वन्ति । तद्यथा
अर्हता अवर्णं वदन, अर्हत्यज्ञप्तस्य धर्मस्य अवर्ण वदन, आचार्योपाध्यायानां अवर्णं वदन, चातुर्वर्णस्य संघस्य अवर्ण वदन,
विपकतपोब्रह्मचर्याणां देवानां अवर्णं वदन् । भाषा टीका-पांच स्थानों के द्वारा जीव दुर्लभ बोधि (दर्शन मोहनीय) कर्म का उपार्जन करते हैं --अर्हत का अवर्णवाद करने से, अर्हत के उपदेश दिये हुए धर्म का अवर्णवाद* करने से, आचार्य और उपाध्याय का भवर्णवाद* करने से, चारों प्रकार के धर्म का अवर्णवाद* करने से, तथा परिपक्व तप और ब्रह्मचर्य के धारक देव जो जीव हुए हैं उनका अवर्णवाद* करने से।
कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य।
मोहणिजकम्मासरीरप्पयोगपुच्छा, गोयमा! तिव्वकोहयाए तिव्वमाणयाए तिव्वमायाए तिव्वलोभाए तिव्वदसणमोहणिजयाए तिव्वचारित्तमोहणिजाए।
व्याख्या प्रज्ञप्ति० शतक ८ उ० ९ सू० ३५१. छाया- मोहनीयकर्मशरीरप्रयोगपृच्छा ? गौतम ! तोक्रोधनतया तीव्रमान* जो दोष न हों उनका भी होना बतलाना, निन्दा करना अवर्णवाद है।