Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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द्वितीयाध्यायः
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औदयिक भाव के वर्णन में आगम के जीवोदय निष्पन्न में से जीव की अपेक्षा कथन करते हुए सूत्र ने संक्षेप से इक्कीस भेदों का वर्णन किया है। अन्तर केवल इतना है कि सूत्र के अज्ञान के स्थान में आगश्र ने अज्ञानी और छद्मस्थ को विशेष दृष्टि से प्रथक् २ माना है । असंयत को अविरत नाम दिया गया है। इनके अतिरिक्त आगम में छै काय, असंज्ञी, आहारक, सयोगी और संसारी को भी प्रथक् भेद माना है जो केवल विस्तृत वर्णन की अपेक्षा से है। तात्विक अंतर सूत्र का आगम से इस विषय में भी नहीं है।
अजीवोदय निष्पन्न का वर्णन करते हुए आगम ने पांचों शरीर, उनकी पर्याय तथा उनमें रहने वाले स्पर्श रस, गंध और वर्ण का वर्णन भी किया है जो जीव की अपेक्षा न होने के कारण सूत्रकार ने नहीं लिया है।
परिणामिक भाव के वर्णन में आगम ने पांचों अजीव द्रव्य, उनकी अनेक विविध पर्यायें तथा उन सब के रहने के स्थानों का वर्णन करते हुए अन्त में जीव के भव्यत्व और अभव्यत्व का वर्णन किया है। अत: इन पांचों भावों के वर्णन में भी सूत्र और आगम में अन्तर नहीं कहा जा सकता। सूत्रकार ने सुखबोध के लिये केवल जोव के ही पारिणामिक भावों का आगम से ग्रहण किया है।
"उपयोगो लक्षणम्
उवमोगलक्खणे जीवे ।
भगवती सूत्र शत० २, उद्देश्य १०. जीवो उवओगलक्खणो।
उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८, गाथा १०. छाया- उपयोगलक्षण; जीवः ।
जीव : उपयोगलक्षण । भाषा टीका-जीव का लक्षण उपयोग है। संगति-आगम तथा सूत्र के शब्दों में कितना शब्द साम्य है।