Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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तस्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
अषयव होते हैं उसे परघात नामकर्म कहते हैं ।
१६. पूर्वायु के उच्छेद होने पर पूर्व के निर्माण नामकर्म को निवृत्ति होने पर विग्रह गति में जिसके उदय से मरण से पूर्व के शरीर के आकार का विनाश नहीं हो उसे भानुपूर्वी नामकर्म कहते हैं । इसके चारों गतियों की अपेक्षा से चार भेद होते हैं । जिस समय मनुष्य अथवा तिर्यच की आयु पूर्ण हो और आत्मा शरीर से प्रथक् होकर नरक भव के प्रति जाने को संमुख हो, उस समय मार्ग में जिसके उदय से आत्मा के प्रदेश पहले शरीर के आकार के रहते हैं उसको नरकगतिप्रयोग्यानुपूर्वी नाम कर्म कहते हैं । इसी प्रकोर देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और मनुष्य गति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म को भी समझना चाहिये । इस कर्मका उदय विग्रहगति में हो होता है । इस कर्म का उदय काल जघन्य एक समय, मध्यम दो समय और उत्कृष्ट तीन समय मात्र है ।
१७. जिसके उदय से शरीर में उच्छ्वास उत्पन्न हो सो उच्छवास नामकर्म है।
१८. जिसके उदय से शरीर आतापकारी होता है, वह आतपनामकर्म है। इस कर्म का उदय सूर्य के विमान में जो बादर पयाप्त जोव पृथिवीकायिक मणिस्वरूप होते हैं, उनके ही होता है। अन्य के नहीं होता।
१९. जिसके उदय से उद्योतरूप शरीर होता है सो उद्योतनामकर्म है । इसका उदय चद्रमा पादि के विमान के पृथिवीकायिक जीवों के, तथा भागिया (पटबीजना जुगनू ) आदि जीवों के होता है।
२०. जिसके उदय से आकाश में गमन हो उसे विहायोगतिनामकर्म कहते हैं । यह दो प्रकार की होती है। एक प्रशस्त विहायोगति दूसरी अप्रशस्तविहायोगति ।
२१. जिसके उदय से आत्मा द्वींद्रिय आदि शरीर धारण करता है सो सनामकर्म
२२. जिसके उदय से जीव पृथिवी, अप, तेज, वायु और वनस्पतिकाय में उत्पन्न होता है सो स्थावरनामकर्म है।
२३. जिसके उदय से ऐसा सूक्ष्म शरीर प्राप्त हो जो अन्य जीवों के उपकार वा घात करने में कारण न हो, पृथ्वी जल अग्नि पवन आदि से जिसका घात नहीं हो और