Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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सत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
प्रास्त्रव के अधिकरण७–पासूव का अधिकरण (आधार ) जीव और अजीब दोनों हैं । जीवाधिकरण के १०८ भेद८-आदि के जीवाधिकरण के निम्न भेद हैं:--
संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ । फिर उनको मन, वचन और काय योग से करना (कृत), कराना (कारित) अथवा करते हुए को भला मानना (अनुमोदना)। फिर उसमें क्रोध, मान, माया अथवा लोभ करना । इस प्रकार तीन, तीन, तीन और चार को परस्पर गुणा देने से
एक सौ आठ भेद होते हैं । अजीवाधिकरणk-निवर्तनाधिकरण, निक्षेपाधिकरण, संयोगाधिकरण और निसर्गाधिकरण यह
चार अजीवाधिकरण के भेद हैं । पाठों कर्मों के प्रास्त्रव के कारण१०-ज्ञान तथा दर्शन के विषय में प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अंतराय, आसा
दन और उपघात करने से झानावरणीय और दर्शनावरणीय कमों का
आसव होता है। ११–स्वयं दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, बध, और परिदेवन करने, दूसरे को
कराने अथवा दोनों को एक साथ उत्पन्न करने से असाता वेदनीय कर्म
का आसूव होता है। १२–प्राणियों और व्रतियों में दया, दान, सरागसंयम आदि योग, क्षमा और
शौच आदि भावों से साता वेदनीय कर्म का आसव होता है । १३-केवलज्ञानी, शास्त्र, मुनियों के संघ, अहिंसामय धर्म, और देवों का
अवर्णवाद करने से दर्शनमोहनीय कर्म का आसव होता है । १४–कषायों के उदय से तीव्र परिणाम होने से चारित्र मोहनीय. फर्म का
आसव होता है ।