Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
और कोई भेद नहीं है । इसके अतिरिक्त इस आगमवाक्य ने प्रथम सूत्र के भाव को तो खोलकर दर्शा दिया है।
नित्यावस्थितान्यरूपाणि।
रूपिणः पुद्गलाः। पंचत्थिकाए न कयाइ नासी न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे नियए सासए अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे अरूवी ।
नन्दिसूत्र० सूत्र ५८. पोग्गलस्थिकायं रूविकायं ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ७ उद्देश्य १०. छाया- पञ्चास्तिकायः न कदाचित् नासीत् , न कदाचित् न भवति,
न कदाचित् न भविष्यति, अभूत च, भवति च, भविष्यति च, ध्रुवः नियतः शाश्वतः अक्षतः अव्ययः अवस्थितः नित्थः अरूपी।
पुद्गलास्तिकायः रूपिकायः। भाषा टीका - यह असम्भव है कि पांच अस्तिकाय किसी समय में न थे, या नहीं होते, या कभी भविष्य में न होंगे। यह सदा थे, सदा रहते हैं और सदा रहेंगे । यह ध्रुव, निश्चित, सदा रहने वाले, कम न होने वाले, नष्ट न होने वाले, एक से रहने वाले, नित्य और अरूपी हैं। इनमें केवल पुद्गल अस्तिकाय रूपी द्रव्य है।
आ आकाशादेकद्रव्याणि।
निष्क्रियाणि च ।
५.
६.