Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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सप्तमोऽध्यायः
[ १६३
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।
७, १२.
भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्मं भावेत्तु अप्पयं ।
उत्तराध्ययन अध्यय १३ गाथा २४.
मणिच्चे जीवलोगम्मि । जीवियं चैव रूवं च विज॒संपायचंचलम् ।
छाया
उत्तराध्ययन अध्ययन १८ गाथा ११, १३
भावनाभिश्च शुद्धाभिः सम्यग् भावयित्वाऽऽत्मानम् । अनित्ये जीवलोके'''''''जीवितं चैव रूपं च विद्युत्संपातचंचलम् । भाषा टीका - शुद्ध भावनाओं से अपने आप को अच्छी तरह चिन्तवन करके जीव लोक में जीवन और रूप को बिजली के गिरने के समान चंचल चिन्तवन करे ।
संगति - यह वाक्य भी दूसरे शब्दों में यही कह रहे हैं कि संवेग और वैराग्य के बासते जगत् और काय के स्वभाव का चिन्तवन करे ।
प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।
७, १३.
तत्थ गं जेते पमत्तसंजया ते असुहं जोगं पडुच्च आयारंभा परारंभा जाव णो णारंभा ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शतक १ उद्दे० १ सूत्र ४८ छाया--- तत्र ये ते प्रमत्तसंयतास्तेऽशुभं योगं प्रतीत्य श्रात्मारंभाः अपि परारम्भाः यावत् नो अनारम्भाः ।
भाषा टीका - प्रमत्तसंयत गुण स्थान वाले मुनि भी अशुभयोग को प्राप्त होकर आत्मारम्भ होते हुए भी परारम्भ हो जाते हैं और पूर्ण आरम्भ करने लगते हैं ।
- संगति- - इस आगम वाक्य में बतलाया गया है कि प्रमत्त संयंत गुण स्थान वाले प्रमाद के योग से प्राणव्यपरोपण रूप हिंसा में फिर भी लग सकते हैं। अन्य लोगों के विषय में तो क्या कहा जावे ।