Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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परिशिष्ट नं०२
[ २५७
देवों के इन्द्र आदि दश भेद४–इन भेदों में से भी प्रत्येक के निम्नलिखित दश २ भेद होते हैं
इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकी
र्णक, आभियोग्य, और किल्बिषिक । ५-व्यन्तर और ज्योतिष्कों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते। ई-भवनवासी और व्यन्तरों के प्रत्येक भेद में दो दो इन्द्र होते हैं । देवों का काम सेवन७–भवनवासो, व्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म स्वर्ग और ईशान स्वर्ग के देव [ मनुष्यों
के समान] शरीर से काम सेवन करते हैं । ८-ऊपर के स्वगों के देव केवल स्पर्श करने, रूप देखने, शब्द सुनने और
मन से ही काम सेवन का रस ले लेते हैं । ९-स्वर्गों (कल्पी) के परे के देव काम सेवन रहित हैं।
देवों के अवान्तर भेद-- १०--भवनवासियों के दश भेद हैं
असुरकुमार, नागकुमार, विद्यु तकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार,
स्तनितकुमार, उदधिकुमार, दीपकुमार और दिकुमार । ११--व्यंतरों के आठ भेद हैं
किनर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । १२-ज्योतिष्कों के पांच मेद हैं
सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णकतारे । १३–यह सब ज्योतिष्कदेव मनुष्य लोक अर्थात् भढ़ाईद्वीप और दो समुद्रों
में सुमेरु पर्वत को प्रदक्षिणा देते हुए निरंतर गमन करते रहते हैं। १४--उन के द्वारा ही समय का विभाग किया जाता है। --१५-मनुष्य लोक से बाहिर के ज्योतिष्कदेव निश्चित अर्थात गति रहित हैं।
१६-इनके ऊपर विमानों में रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं ।