Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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सप्तमोऽण्याव:
परलोगे दुञ्चिन्ना कम्मा परलोये दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ॥४॥ इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ॥१॥ इहलोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति, एवं चउभंगो।।
स्थानांग स्थान ४ उद्दे०२ सत्र. २८२ छाया- संवेगिनी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-इहलोकसंवेगनी परलोक
संवेगनी, श्रात्मशरीरसंवेगनी परशरीरसंवेगनी । निवेदनी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि इहलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥ १॥ इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥२॥ परलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि इहलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥३॥ परलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥४॥ इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि इहलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥१॥ इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि परलोके सुखफलविपाक
संयुक्तानि भवन्ति ॥२॥ एवं चतुर्भङ्गाः। भाषा टीका-संवेगिनी कथा चार प्रकार की कही गई है-इहलोक संवेगिनी, परलोक संवेगनी, आत्मशरीर संवेगनी, परशरीर संवेगनी।
निवेदनी कथा भी चार प्रकार की कही गई है-इस लोक में बुरी तरह एकत्रित किये हुए कर्म इस लोक में दुःख, फल और विपाक देते हैं ॥१॥ इसलोक में बुरी तरह एकत्रित किये हुए कर्म परलोक में दुःख, फल और विपाक देते हैं ॥२॥ परलोक में बुरी तरह एकत्रित किये हुए कर्म इस लोक में दुःख फल और विपाक से संयुक्त होते हैं ॥३॥ परलोक में बुरी तरह एकत्रित किये हुए कर्म परलोक में ही दुःख, फल और विपाक से संयुक्त होते हैं ॥ ४॥
इस लोक में अच्छी तरह किये हुए कर्म इस लोक में सुख, फल और विपाक से