Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सव्वेसु विपएसेसु, सव्वं सव्वेण बद्धगं ॥
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उत्तराध्ययन अ० ३३, गाथा १७ - १८.
छाया- सर्वेषां चैव कर्मणां प्रदेशाग्रमनन्तकम् ।
ग्रन्थिकत्वातीतं, अन्तरं सिद्धानामाख्यातम् ।। १७ ।। सर्वजीवानां कर्म तु, संग्रहेष दिशागतम् । सर्वेरप्यात्मप्रदेशैः, सर्वं सर्वेण बद्धकम् ॥ १८ ॥
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भाषा टीका - सब कर्मों के प्रदेश अनन्त हैं । उनकी संख्या अभव्यराशि से अधिक और सिद्धराशि से कम है।
सब जीवों का एक समय का कर्म संग्रह छहों दिशाओं से होता है और आत्मा के सब प्रदेशों में सब प्रकार से बंध जाता है।
संगति - सारांश यह है कि ज्ञानावरणीय आदि सभी कर्मों की प्रकृतियों अनंतानं कर्म पुद्गलों के प्रदेश हैं जो आत्मा के समस्त प्रदेशों में सूक्ष्म तथा एकक्षेत्रावाह रूप से स्थित हैं।
सद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ।
अतोऽन्यत्पापम् ।
एगे पुणे एगे पावे ।
८, २५.
८, २६.
सायावेदणिज्ज...... तिरिआउए मगुस्साउए देवाउए, असाया वेदणिज्ज इत्यादि ।
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सुहग्रामस्सणं' "उच्चागोत्तस्स
प्रज्ञापना सूत्र पद २३,
उ० १.
स्थानांग स्थान १, सूत्र १६.
छाया- सातावेदनीयः ""तिर्यगायुः मनुष्यायुः देवायुः शुभनाम"