Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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२३० ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
१०,२.
___ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमो
क्षो मोक्षः। ___अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टिसुकमाणं झियायमाणे वेयणिज आउयं नाम गोत्तं च एए चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ ।
उत्तराध्ययन अध्ययन २९, सूत्र ७२. छाया- अनगारः समुच्छिन्नक्रियमनिवृत्तिशुक्लध्यानं ध्यायन्वेदनीयमायुर्नाम
गोत्रं चैतान् चतुरः कांशान युगपत्क्षपयति । भाषा टीका-[इसके पश्चात् वह ] मुनि समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति अथवा व्युपरतक्रियानिवर्ति नाम के चतुर्थ शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हुए वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मो के अंशों अथवा प्रकृतियों को एक साथ नष्ट करते हैं ।
___ संगति - वीतराग होने के कारण उस समय बंध के सभी कारणों का अभाव हो जाता है और प्रतिक्षण निर्जरा होते २ अंत में चारों अघातिया कर्मा को भी निर्जरा हो जाती है। उस समय सम्पूर्ण कर्मों का नाश रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है।
औपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च । नोभवसिद्धिए नोअभवसिद्धिए।
प्रज्ञापना पद १८. छाया- न भवसिद्धिकः नाऽभवसिद्धिकः ।
भाषा टीका - उस समय न भव्यत्व भाव रहता है और न अभव्यत्व भाव रहता है।
संगति - औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक तथा भव्यत्व [ तथा अभव्यत्व] भावों का और पुद्गलकर्मों की समस्त प्रकृतियों का नाश हो जाने पर मोक्ष होता है। अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः।
१०,४.