Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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षष्ठोऽध्यायः
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संगति-सूत्र में कहा है कि तीव्र भाव, मन्द भाव, ज्ञात भाव, अज्ञात भाव, अधिकरण और वीर्य की विशेषता से उस आसूव में विशेषता (न्यूनाधिकता) होती है। आगम वाक्य में इसी बात को बिलकुल बदले हुये शब्दों में और प्रकार से कहा गया है ।
अधिकरणं जीवाऽजीवाः। जीवे अधिकरणं ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति श० १६, उ० १. एवं अजीवमवि ।
स्थानांग स्थान २, उ० १, सू० ६०. छाया- जोवोऽधिकरणं, एवमजीवमपि । भाषा टीका- आसूव का अधिकरण (आधार) जीव और अजीव दोनों हैं ।
आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारिताऽनुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः। संरम्भसमारम्भे आरम्भे य तहेव य ।।
उ० अध्य० २४ गाथा २१. तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समाजाणामि । .
' दशवैकालिक भ०४. जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवंति तस्स णं संपराइया किरिया।
व्याख्या प्रज्ञप्ति श० ७, ७० १, २०१८. छाया- संरम्भः समारम्भः प्रारम्भश्च तथैव च ।।
त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कर्मणा न करोमि न कारयामि करन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । यस्य क्रोधमानमायालोमाः अव्यवच्छिन्ना भवन्ति तस्य साम्परायिका क्रिया।